BA Semester-1 History - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-1 इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 इतिहास

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :325
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2628
आईएसबीएन :000000000

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बीए सेमेस्टर-1 इतिहास के नवीन पाठ्यक्रमानुसार प्रश्नोत्तर

प्रश्न- चालुक्य कौन थे? इनकी उत्पत्ति के बारे में बताइए।

अथवा

बादामी के पूर्वकालीन चालुक्य वंश पर टिप्पणी लिखिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चालुक्यों की उत्पत्ति के बारे में बताइए।
2. चालुक्य कौन थे?
3. बादामी के पूर्वकालीन चालुक्य वंश पर टिप्पणी लिखिए।
4. पुलकेशिन द्वितीय के चरित्र का मूल्याकन कीजिए।
5. कीर्तिवर्मन प्रथम के विषय में आपके क्या विचार हैं?

उत्तर-

चालुक्यों की उत्पत्ति-

चालुक्यों की उत्पत्ति का विषय अत्यन्त ही विवादास्पद है। वाराहमिहिर की 'वृहत्संहिता' में इन्हें शूलिक जाति का माना गया है। जबकि पृथ्वीराज रासो मे इनकी उत्पत्ति राजपूतों की उत्पत्ति के समान आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी जाती है। एफ. फ्लीट तथा के. ए. नीलकण्ठ शास्त्री ने इस वंश का नाम चालुक्य बताया है। आर. जी. भण्डारकर ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम चालुक्य का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने चालुक्य वंश के पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय बताया है।

छठी शताब्दी के मध्य से लेकर 300 वर्षों तक दक्षिण भारत का इतिहास वस्तुतः तीन शक्तियों के बीच आपसी संघर्ष का इतिहास है। ये तीन शक्तियाँ थीं - (1) बादामी के चालुक्य (2) कांची के पल्लव (3) मदुरा का पाण्डय। छठी सदी में इन तीनों ने प्रमुखता प्राप्त की। बादामी के मुरध राजवंश के अतिरिक्त चालुक्यों की दो शाखाओं ने दो अलग राज्यों की स्थापना की. जो मुरध से बहुत कुछ स्वतंत्र थे, उनके नाम थे - (1) लाट के चालुक्य (2) वेंगी के पूर्वी चालुक्य। मैसूर के गंग राजाओ के साथ-साथ पूर्वी चालुक्यों ने भी तीन राज्यों के संघर्ष में किसी न किसी ओर से भाग लिया जिसके परिणाम कभी-कभी निर्णायक हुए। दक्षिण के चालुक्यों में पूर्वकालीन चालुक्य वंश ने लगभग दो सौ वर्ष छठी शताब्दी के मध्य से आठवी शताब्दी के मध्य तक राज्य किया। तत्पश्चात् वे राष्ट्रकूटों के हाथों पराजित हुए और उनका कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य वंश ने राष्ट्रकूट वंश के शासकों को हराकर 12वीं शताब्दी के अन्त तक राज्य किया अर्थात् पूर्वी चालुक्य वंश ने 7वी शताब्दी से 12वीं शताब्दी के अन्त तक राज्य किया।

चालुक्य कौन थे?

इस सम्बन्ध में अनेक मतभेद है, अभी तक इस सम्बन्ध में कोई निश्चित एवं सर्वमान्य विचार स्थित नहीं हुआ। डॉ. वी. ए. स्मिथ का विचार था कि चालुक्य वास्तव में चपों (Chapos) से सम्बन्धित थे और इस प्रकार उनका सम्बन्ध विदेशी गुर्जरों से था क्योंकि चप उनकी एक शाखा थी, उनका यह विचार भी था कि वे राजपुताना से दक्षिण गये। इस विचार को अस्वीकार करते हुए डॉ. डी. सी. सरकार ने अपना मत प्रस्तुत किया कि चालुक्य एक देशीय कजर परिवार के थे जो क्षत्रिय होने का दावा करते थे, चालुक्य संज्ञा को कभी-कभी उत्तरापथ के चुलिक लोगों से जोड़ा जाता है। सरकार ने इस विचार की पुष्टि के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया है। उनका यह भी विचार था कि चुलिको को उड़ीसा के चुल्कियों से एकात्य मानना चाहिए और चालुक्यों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था।

मेरुतुंग ने प्रबन्ध चिन्तामणि में द्वयाश्रयकाव्य के व्याख्याकार अभय तिलकमणि के उद्धृत किये हुए पद को दोहराया है जिसका सारांश है, "चालुक्य वंश संध्याकृत्य के समय किये हुए आचमन से उत्पन्न हुआ है।' बालचन्द्र सूरि ने अपने बसन्त विलास में लिखा है "प्रथम चालुक्य की उत्पत्ति राक्षसों के विनाश करने के लिए की गयी थी।

जगसिंह सूरि ने अपने कुमारपाल भूपाल चरित्र में लिखा है "चालुक्य चुलुक के वंशज हैं जिसने अगणित शत्रुओं का विनाश कर मधुपदम को अपनी राजधानी बनवाया, चन्दबरदाई के पृथ्वीराज रासो में वर्णन है कि "वशिष्ठ ने राक्षसों के संहार के प्रतिहार, चालुक्य, परमार और अन्नज चाहमान की उत्पत्ति की. जिन्होंने राक्षसों का वध किया।

बादामी के चालुक्य वंशी हारीति पुत्र होने का दावा करते थे। कहा जाता है कि वे मनुष्य गोत्र के थे। वे सप्त मातृ द्वारा पोषित होने का दावा करते थे जो मानवमात्र की मातायें थीं। इन चालुक्यों को कार्तिकेय की अराधना करते हुए दिखाया गया है। किन्तु पूर्वकालीन चालुक्यों का देवता सम्भवतः विष्णु था. यद्यपि यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने शैवों जैनियों को भी संरक्षण दिया था।

अभिलेख में केवल इस वंश के कुछ राजाओं का ही उल्लेख है वंशोत्पत्ति का इतिहास तो अंधकाराच्छन्न ही है। एक अनुभूति के आधार पर इस वंश के प्रथम पुरुष की उत्पत्ति ब्रह्मा के पौत्र हरीति द्वारा अर्घ्यदान के समय उसके जल पात्र से हुई। चूंकि हरीति की 'चुलका' अर्थात् पानी की अंजलि (चुल्लू) में से इस वंश के प्रथम पुरुष का जन्म हुआ, अतः इस वंश का नाम चालुक्य पड़ गया।

विल्हण कृत विक्रमाकदेव चरित्र में इस वंश के प्रादुर्भाव की कथा दूसरी ही है। उसके अनुसार इस वंश का आरम्भ उस प्रतापी पुरुष से हुआ, जिसे ब्रह्मा ने अपनी हथेली पर संसार के अधर्म को नष्ट करने के लिए उत्पन्न किया।

एक किंवदन्ती के अनुसार यह भी कहा जाता है कि ब्रह्मा के पुत्र अत्रि के नेत्र से इस वंश की उत्पत्ति हुई। दूसरी किवदन्ती यह भी है कि इस वंश के प्रथम पुरुष की उत्पत्ति भगवान विष्णु के नाभि कमल से हुई। कल्याणी के उत्तरकालीन चालुक्यों के अभिलेखों में दिये गये पारस्परिक इतिहास में चालुक्यों का सम्बन्ध मनु या चन्द्र से जोड़ा गया है और इसका सम्बन्ध अयोध्या के साथ बताया गया है। 

श्रीनिवासचाली और एम. एस. आयंगर का मत है कि- "The real source from which they sprang is far from clear and it is said that they ruled from Ayodhya for nearly sixty generations before they appeared in Deccan."

बताया जाता है कि चालुक्य वंश के 49 राजाओं ने अयोध्या में राज्य किया और 16 राजाओं ने दक्षिणापथ में राज्य किया।

एक अन्य अभिलेख से स्पष्ट हुआ है कि इस वंश के आदि पूर्वज ब्रह्मा देवता थे। उसके बाद उसका पुत्र स्वयंभू - मनु हुआ। मनु का पुत्र मानत्य था। मानत्य का पुत्र हरीति था। उसके बाद उसका पुत्र पंचशिखी हरीति था। उसका पुत्र चालुक्य था और उसी से चालुक्यों की उत्पत्ति हुई।

डॉ. होयरनल ने लिखा है कि चालुक्य लोग पूर्ण रूप से विदेशी उत्पत्ति के थे। ये हूण या गुर्जर जाति के वंशज थे।

डॉ. राय चौधरी विदेशी उत्पत्ति के सिद्धान्त के मानने वालों के विरोधी हैं। उनका मत है- "कुछ आधुनिक लेखकों का विश्वास है कि वास्तव में चालुक्य उत्तर-भारत की चपो और विदेशी गुर्जर जातियों से सम्बन्धित थे परन्तु इस मान्यता के पक्ष में बहुत कम कहा जा सकता है। आलेखों से चालुक्यो और गुर्जरो के भेद का पता चलता है और उनकी विशेषताएँ और नायावलियों का स्वरूप स्पष्ट रूप से दक्षिण भारतीय है।"

डॉ. डी. सी. सरकार का कथन है कि चालुक्यों की उत्पत्ति और आरम्भिक इतिहास के लिए दिये गये तथ्यों पर पूर्ण रूप से विश्वास न करके उचित ही कार्य किया गया है। ये समस्त वर्णन अस्पष्ट और अनुश्रुतियों पर आधारित हैं। उन्होंने लिखा है- "Scholars have rightly rejected the above accounts of the rise and early history of the Chalukyas as a mere far go of vague legends and puranic my the of no authority of value."

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि चालुक्यों की उत्पत्ति के विषय में अधिक विचार करना व्यर्थ है क्योंकि जो भी प्राप्त सामग्री है उसके आधार पर हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते, न ही कोई अभिलेखीय साक्ष्य मिलता है।

चालुक्यों की विभिन्न शाखा - छठी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक और फिर दसवी से बारहवीं शताब्दी तक चालुक्य वंश दक्षिण के बहुत अधिक शक्तिशाली वंशों में था। दक्षिण के चालुक्य तीन स्थानों पर विद्यमान थे -

(1) बादामी (वातापी) के चालुक्य,

(2) कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य,

(3) वेंगी के पूर्वी चालुक्य या पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य।

बादामी (वातापी) का पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य वंश

जयसिंह कैरा ताम्रपत्र अभिलेखीय साक्ष्य से यह प्रमाणित होता है कि जयसिंह राजवंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था।

रणराग - जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी रणराग सम्भवतः 520 ई वातापी के राजसिंहासन पर बैठा, गदायुद्ध में कुशल होने के कारण उसने रणराग सिंह की उपाधि धारण की।

इस वंश के प्रारम्भिक राजाओं में जयसिंह और उसका पुत्र राजराज हुए।

राजासज्जी जयसिंह वल्लभ इति ख्याताश्च लुक्यान्वयः।

परन्तु इनके विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है

"तस्यात्मजौडभूद्रण राग नामा
दिव्यानुभानवो जगदेक नाथः।
अमानुषत्वं किल यस्मलोकः
सुप्तस्य जानाति वपुः प्रकषतिः।

पुलकेशिन् प्रथम (535 ई. - 566 ई.)

कुछ इतिहासकारों ने पुलकेशिन प्रथम का शासन काल 535 से प्रारम्भ न मानकर 550 ई. माना है। परन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं है।

बादामी के चालुक्य वंश के शासन को सुसंगठित रूप से स्थायित्व देने का कार्य सर्वप्रथम पुलकेशिन प्रथम ने किया था। पुलकेशिन प्रथम ने 535 ई. से 566 ई तक राज्य किया। वह अपने परिवार का पहला महाराजा था और इसे इस वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जा सकता है। इसके पिता का नाम रणराग था।

तस्याभवन्तनूजः पुलकेशिन् यः - श्रिवेन्तुकान्ति-रपि।
श्री वल्लभेडप्यवासी द्वातापिपुरी वधूवरताम् ॥

अर्थात् चन्द्रा की क्रान्ति का आश्रय और लक्ष्मी का प्रियतम होने पर भी जिस पुलकेशिन को वातापी' नगरी रूपी दुल्हन ने पति के रूप में वरण किया था।

उपाधियाँ - उसने 'सत्याश्रय', 'श्री पृथ्वी वल्लभ' और 'रण विक्रम' आदि उपाधियाँ धारण की।

यज्ञों का सम्पादन  - पुलकेशिन प्रथम ने हिरण्यगर्भ', 'अश्वमेध', 'अग्निष्टोम', 'अग्निचयन', 'वाजपैय. 'बाहुसुवर्ण' और 'दिलीप' जैसे कई यज्ञों का आयोजन किया।

विद्वान एवं निर्माता- पुलकेशिन को मानव धर्म, पुराणों, रामायण और महाभारत का अच्छा ज्ञान था। उसने वातापी दुर्ग की नीव रखी जो बीजापुर जिले में थी। इसे किसी राज्य को विजय करने का श्रेय नहीं दिया जाता।

"यत्त्रिवर्ग पदवीमलक्षितौ
नानगन्तुमधुनाऽपि राजकम।
भूश्च येन हयमेध याजिना
प्रापितावप्रथ मज्जनं बभौ ॥'

कीर्तिवर्मन प्रथम (567 ई. - 598 ई.) -

लगभग 567 ई. में पुलकेशिन प्रथम के पश्चात् कीर्तिवर्मन प्रथम शासक हुआ। उसने 'सत्याश्रय', 'पुरुरणपराक्रमे', 'वल्लभ' और 'पृथ्वीवल्लभ' आदि उपाधियों धारण कीं। उसे भी वातापी का प्रथम निर्माता कहा गया है क्योंकि मन्दिरों तथा अन्य स्मारको को उसने सुन्दर बनाया था।

"नलमौर्य कदम्य काल रात्रि
स्तनयस्तस्य वभूव कीर्तिवर्मा
परदारनिवृत्ते चित्र वृत्ते
रपि धीर्यस्य रिपु श्रियानुकृष्टा ॥'

विजय अभिलेखों के अनुसार - कीर्तिवर्मन प्रथम ने वंग, अंग, कलिग, मगध, मुद्रक, केरल, गङ्ग मूषकपांड्य, दूमिल, चोलिय, वैजयन्ती, नल, मौर्य, कदम्ब आदि वंशों पर विजय प्राप्त की, किन्तु अभिलेखो के कथन अतिरंजित प्रतीत होते हैं। उसके युद्ध दक्षिणापथ में ही सीमित रहे। सम्भवतः उसने पड़ोसी राज्यों को परास्त करके दक्षिणी महाराष्ट्र तथा मैसूर और मद्रास के कुछ प्रदेशों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने नलों, मौर्यो और कदम्बों को भी पराजित किया था।

डॉ. डी. सी. सरकार के मतानुसार चालुक्यों का राजनीतिक प्रभाव महाराष्ट्र राज्य के दक्षिणी भाग और निकटवर्ती मैसूर के क्षेत्र तथा मद्रास राज्य और विस्तृत प्रदेशों में फैला हुआ था। प्रतीत होता है कि कीर्तिवर्मन ने कोंकण के मौर्य प्रदेशों के कुछ भागों को हस्तगत कर लिया था।

मंगलेश (598 ई. - 609 ई.)

कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु 598 ई में हुई। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई मंगलेश सिंहासनारूढ़ हुआ। मंगलेश ने 'रणविक्रान्त', पृथ्वीवल्लभ' और 'श्रीविल्लभ' आदि उपाधियाँ धारण की थीं।

तस्मिन सुरेश्वरविभूति गताभिलासे
राजाऽभवतदनुजः किल मङ्गलेशः

कल्चुरियों से युद्ध - मंगलेश के शासन काल में कल्चुरियों के वश का राजा बुद्धराज था। वह अत्यन्त पराक्रमी था और उसने गुजरात, खानदेश तथा मालवा पर अपना अधिकार कर लिया था। मंगलेश ने उससे लोहा लिया और दोनों के मध्य बहुत समय तक युद्ध चलता रहा। अन्तिम विजय मंगलेश को ही प्राप्त हुई और उसने खानदेश और उसके समीप के प्रदेश कलचुरि राजा से छीन लिए।

कोंकण पर आक्रमण -

"स्फुरन्मयूर वैर सिदिपिका शतै
व्युर्दस्य मातंगत मिस्त्र सञ्चयम्।
अवाप्तवान यो रण रंग मन्दिरे
कटच्छुरि श्री ललनपरि ग्रहम् ॥

कोंकण चालुक्यों के ही अधीन था। वहाँ उनका सामन्त स्वामिराज राज्य कर रहा था। किन्हीं कारणों से मंगलेश का विरोधी हो गया और उसने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। मंगलेश अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने स्वामिराज पर आक्रमण करके उसे मौत के घाट उतार दिया और कोंकण में इन्द्रवर्मन को अपने सामन्त शासक के रूप में नियुक्त किया। मंङ्गलेश के नेहरू दानपत्र में इस विजय का उल्लेख हुआ है।

"कोंकणेषु यदादिष्ट चण्डदण्डाभम्बुवीचिभि।

मंगलेश का धर्म - मंगलेश अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति था। वह विष्णु का अनन्य उपासक था। उसे 'परमभागवत' भी कहा जाता है।

मृत्यु - अपने शासनकाल में ही मंगलेश ने अपने पुत्र सात्याश्रय ध्रुवराज इन्द्रवर्मन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। इससे उनका भतीजा पुलकेशिन द्वितीय जो कीर्तिवर्मन का प्रथम पुत्र था हो गया और उसने विद्रोह कर दिया। मंगलेश और पुलकेशिन द्वितीय में गृहयुद्ध हुआ। पुलकेशिन ने क्षुब्ध मंगलेश को मौत के घाट उतार कर 609 ई. में चालुक्य सिंहासन को अपने हाथों में ले लिया।

पुलकेशिन द्वितीय (609-10 से 642-43 ई.)

ऐहोल प्रशस्ति पत्र के अनुसार कीर्तिवर्मन प्रथम का पुत्र पुलकेशिन द्वितीय अपने चाचा मंगलेश की हत्या कर सिंहासन पर बैठा। उसने सत्पाश्रय, श्री पृथ्वीवल्लभ महाराज की उपाधि धारण की।

सिहासनरूढ होते ही पुलकेशिन द्वितीय को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। गृहयुद्ध के फलस्वरूप चालुक्य शक्ति को बहुत धक्का लगा था और अनेक अधीन सामन्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था। उसके पड़ोसी राज्य उस पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे। इस प्रकार पुलकेशिन के सम्मुख सबसे पहले दो प्रमुख समस्यायें थी -

(1) विद्रोही अधीनस्थ सामन्तों का दमन करना।

(2) बाह्य आक्रमणों से अपनी रक्षा करना।

(1) विद्रोहियों का दमन - गोविन्द और आध्यात्मिक पुलकेशिन द्वितीय के सबसे बड़े प्रतिद्वन्द्वी थे। इन्होंने चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया और भीमानदी तक पहुँच गये थे, पुलकेशिन अत्यन्त चतुर था उसने कूटनीति का आश्रय लिया और किसी प्रकार गोविन्द को अपनी ओर मिला लिया और अप्पायिक को हरा दिया।

(2) कदम्बों पर विजय - इसके बाद पुलकेशिन का ध्यान कदम्बो की ओर गया. ऐहोल लेख में लिखा है कि गोविन्द ने कदम्बों की राजधानी वनवासी पर आक्रमण करके उस पर अपना अधिकार जमा लिया।

(3) आलुपों और गड़ो पर विजय - दक्षिणी किनारा के आलुप और दक्षिणी मैसूर के गंग कदम्बों के मित्र थे। कदम्बों को पराजित करने के पश्चात् उसने इनकी ओर भी ध्यान दिया और उसने दोनों को भी पराजित किया तथा गंग राजा दुर्विनीत ने अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन से कर दिया।

(4) मौर्यों पर विजय - मौर्यों का राज्य उत्तरी कोंकण था. इनकी राजधानी पुरी थी। पुलकेशिन द्वितीय ने उस पर आक्रमण करके पुरी पर अपना अधिकार जमा लिया।

पुलकेशिन के ऐहोल लेख से मौर्यों के ऊपर की गयी विजय की पुष्टि होती है।

कोड कणेषु यदादिष्ट चण्डदाण्डाम्बुवीचिभिः
यदस्तास्तरमा मौर्य पल्वलाम्बुस मृद्धयः।

(5) लाटों, मालवों, और गुर्जरों का आत्म-समर्पण - पुलकेशिन द्वितीय के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर लाट, मालव और गुर्जर अत्यधिक भयभीत हो गये थे और उन्होंने पुलकेशिन के सम्मुख नतमस्तक होना स्वीकार कर लिया।

(6) थानेश्वर के राजा हर्षवर्द्धन पर विजय - पुलकेशिन के शासनकाल में थानेश्वर का राजा हर्षवर्द्धन अत्यन्त पराक्रमी था। उत्तरी भारत में उसका उस समय अधिक बोलबाला था। अतएव पुलकेशिन और हर्षवर्धन में युद्ध होना स्वाभाविक था। हर्ष ने जब वल्लभी पर आक्रमण किया तो वहां के राजा धवसेन द्वितीय गुर्जर नरेश दद्द द्वितीय की सेना में चला गया। गुर्जर नरेश पुलकेशिन से लोहा मानता था और बहुत सम्भव है कि पुलकेशिन के कहने पर ही दद्द ने हर्षर्द्धन से विरोध मोल लिया हो। गुर्जर नरेश के राज्य के समीपस्थ राज्यों के लाटो और मालवों के राजाओ ने भी दद्द और पुलकेशिन द्वितीय का साथ दिया। इस प्रकार पश्चिमी भारत में पुलकेशिन हर्षवर्द्धन के विरुद्ध एक प्रबल संघ बनाने में समर्थ हो गया। यह भी कहा जाता है कि उसने बगाल के राजा शशांक को भी अपनी ओर मिला लिया। रेवा (नर्मदा नदी के तट पर) में हर्ष और पुलकेशिन में भयंकर युद्ध हुआ तथा हर्ष की पराजय हुई।

इस युद्ध में पर्याप्त मतभेद है। कुछ विद्वानों का मत है कि 637 ई. के लगभग पुलकेशिन ने हर्ष को हराया था। विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि शक सम्वत् 534 ई. या 612 ई से 613 ई. के लगभग पुलकेशिन ने हर्षवर्द्धन को पराजित किया। यह विचार चालुक्य के शासक के हैदराबाद अनुदार में दी गयी जानकारी पर आधारित है। इस अभिलेख में कहा गया है कि एक सौ युद्ध में संघर्ष करने का संकल्प करने वाले शत्रु राजाओं को परास्त करके पुलकेशिन द्वितीय ने परमेश्वर की उपाधि प्राप्त की। इसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में कहा गया है कि उत्तर के समस्त प्रदेश के युद्धप्रिय स्वामी कीर्तिवान हर्षवर्द्धन को परास्त करके पुलकेशिन द्वितीय ने यह उपाधि प्राप्त की. परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसी सम्भावनाएँ नहीं थीं। सम्राट हर्षवर्द्धन ने 606 ई में राजगद्दी प्राप्त की थी और पुलकेशिन द्वितीय 610-611 ई. में शासक बना था। दोनों शासक अपने कार्यों में व्यस्त रहे होंगे। 612- 613 ई में उनके युद्ध की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुस्लिम इतिहासकारी तवारी के अनुसार  625-26 ई में पुलकेशिन II ने ईरान के राजा खुसरो द्वितीय के दरबार में अपना राजदूत मण्डल भेजा था। हर्षवर्द्धन की पराजय 630 ई. से पूर्व नहीं हो सकती, क्योकि पुलकेशिन द्वितीय के 630 ई के लोहेनेर अनुदान में इसका उल्लेख नहीं है। विद्वानो का वह वर्ग जो यह मानता है कि हर्षवर्द्धन और पुलकेशिन द्वितीय के मध्य 630-634 ई. के बीच किसी समय युद्ध हुआ, अधिक समिचीन प्रतीत होता है।

पल्लवों पर विजय - पुलकेशिन द्वितीय अत्यन्त प्रतिभाशाली राजा हुआ। कोशल और कलिंग का दमन वह कर ही चुका था। उसने चिष्टपुर नरेश को पराजित करके अपने भाई विष्णुवर्द्धन को वहाँ का राजा बनाया जिससे पूर्वी चालुक्यों के शासन की नींव पड़ी। पूर्वी चालुक्यों की इस शाखा ने 1070 ई. तक राज्य किया, पुलकेशिन द्वितीय के शासन काल में पल्लव वश में महेन्द्रवर्मन नामक अत्यन्त योग्य, विद्वान और कला प्रेमी राजा राज्य करता था। दक्षिण में वह पुलकेशिन का सबसे बडा विरोधी था। पुलकेशिन ने पल्लवराज पर आक्रमण किया और पुल्ललूर तक बढ़ गया। सम्भवतः उसने यह कार्य 630 ई. के पूर्व ही कर लिया था। दुर्भाग्यवश वह पल्लवों की राजधानी कांची पर अधिकार नही कर सका, लोहेनेर अभिलेख में उसे पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों का राजा कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि उसका राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक विशाल भू-भाग में फैला हुआ था। पल्लवों को सदैव के लिए दबाये रखने के लिए उसने पाण्डयो और चोलों से मित्रता कर ली थी।

चोले केलर पाण्डयानां योऽभूतभय ह्रद्धेये।
पल्लवानीक निहार तुहिनेतर दीधितः ॥

पुलकेशिन की मृत्यु - सन् 630 ई. में पल्लवराज महेन्द्रवर्मन की मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन पल्लव सिंहासन पर आरूढ हुआ। उसके शासनकाल में पुलकेशिन ने पुनः कांची पर अधिकार करना चाहा। नरसिंह वर्मन ने लंका के एक राजकुमार मानवर्मा की सहायता से पुलकेशिन को पराजित किया। तत्पश्चात् पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण करके उसकी राजधानी बादामी को अपने अधिकार में ले लिया। निरन्तर युद्ध करते हुए पुलकेशिन मारा गया और नरसिंहवर्मन ने 'वातापी काण्ड' की उपाधि धारण की थी।

मूल्यांकन - पुलकेशिन द्वितीय अत्यन्त वीर और साहसी था। एक समय उसने समस्त भारतवर्ष में अपना डंका बजा दिया था। उसके विषय में डॉ. डी. सी. सरकार ने लिखा है- "Pulkeshin II was undoubledly the greatest king of the Chalukya house of Badami and one of the great monarchs of Ancient India."

कहा जाता है कि ह्वेनसाग पुलकेशिन के राज्य में गया था। उसने पुलकेशिन और उसके राज्य के विषय मे बड़ा विशद वर्णन किया है, पुलकेशिन के विषय में उसने लिखा है कि पुलकेशिन क्षत्रिय था और उसकी प्रजा उसकी बहुत अधिक भक्त थी। उसक राज्य की भूमि अत्यधिक उर्वरा थी और जलवायु बहुत अधिक गर्म थी, राज्य के निवासी ईमानदार और विद्याप्रेमी थे। वे शत्रु से लोहा लेना चाहते थे परन्तु शरण में आये हुए पर वार नहीं करते थे। उसके राज्य के विषय में ह्वेनसांग ने लिखा है "उसका आचरण सरल और स्वाभाविक है, वे चरित्र से अभिमानी, उदण्ड और लम्बे होते हैं और उन्हें कष्ट देने वाला उनके प्रतिकार से नहीं बच सकता, यदि कोई उनका अपमान करे तो वे उसे ठीक करने के लिए जीवन न्यौछावर करते हैं। यदि कोई कठिनाई में उनकी सहायता मांगे तो उसके लिए वे अपनी सुधबुध भूल कर भागते हैं. यदि वे किसी आंघात का बदला लेते हैं तो वे अपने शत्रु को चेतावनी देते हैं फिर दोनों कवच पहन लेते हैं और भाला सम्भाल लेते हैं। युद्ध में भागने वालों का वध नहीं करते थे। यदि कोई सेनानी युद्ध में हार जाये तो वे उसे शारीरिक दण्ड न देकर स्त्री वेश पहनाकर आत्महत्या के लिए विवश कर देते थे।

तस्याम्बुधित्रयनिवारित शासनस्य
सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम्।
शैलं जिनेन्द्रभवनं भवणं महिम्नां
निर्मापितं मतिमता रविकीर्तिनेदम् ॥

पुलकेशिन के पास एक विशाल सेना थी। अपने सैय बल के कारण ही उसने हर्षवर्द्धन जैसे महान राजा को पराजित किया। उसकी सेना के विषय में ह्वेनसांग लिखते हैं, "देश के सैकड़ों सैनिकों के दस्ते भर्ती किये जाते हैं। जब भी उन्हें युद्ध करना होता है वे शराब का नशा चढ़ा लेते हैं और कहते हैं कि एक आदमी हाथ मे भाला उठाकर दस हजार व्यक्तियों का सामना करेगा और उन्हें लाल करेगा। यदि इनमें से सैनिक किसी व्यक्ति की हत्या कर दे तो उसे दण्ड नहीं दिया जाता। प्रस्थान करते समय वे ढोल पीटते हैं। इसके अतिरिक्त वे सैकड़ों हाथियों को नशा चढ़ा देते हैं और स्वयं भी शराब पी लेते है और फिर आगे बढ़कर सभी कुछ रौंद डालते हैं जिससे कोई भी शत्रु उनके सामने नहीं ठहर सकता। इस प्रकार के हाथी और सैनिकों के होने के कारण राजा अपने पड़ोसियों को घृणा से देखता है।'

ह्वेनसांग के अतिरिक्त कुछ अन्य इतिहासकारों के वर्णन भी पुलकेशिन द्वितीय के विषय में प्राप्त होते हैं। तबरी नामक एक मुसलमान इतिहासकार ने लिखा है कि पुलकेशिन ने 625-626 ई. के लगभग ईरान के राजा खुसरो परवेश की सभा में एक दूत भेजा था। अजन्ता की गुफा के एक चित्र में पुलकेशिन के साथ एक फारस के दूत को चित्रित किया गया है। पुलकेशिन इस दूत का स्वागत करता हुआ दिखाया गया है।

इन समस्त तथ्यों से विदित होता है कि पुलकेशिन का सिक्का भारत के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी था। अन्य देशों के राजा भी यह जानते थे कि भारत में पुलकेशिन नाम का एक महान सम्राट है। हर्षवर्द्धन महान पर उसकी विजय इस बात की साक्षी है कि दक्षिण भारत का वही एक राजा था जिसने उत्तर भारत को पूर्णरूप से झकझोर दिया था। डॉ. स्मिथ ने उसे हर्ष के समतुल्य बतलाया है। उन्होंने इसके विषय में लिखा है,

“पुलकेशिन द्वितीय (601-45) कन्नौज के हर्ष ( 606-17) का लगभग समकालीन था और दक्षिण भारत में उसका वैसा ही सर्वश्रेष्ठ स्थान था जैसा कि उत्तरी-भारत में उसके प्रतिद्वन्द्वी का था।"

अव्यवस्था का काल (642-655 ई.) - पुलकेशिन द्वितीय के पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् चालुक्य राज्य में बड़ी गड़बड़ी फैल गई। पुलकेशिन द्वितीय के पुत्रो में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ और अधीन सामन्त अपने को स्वतन्त्र घोषित करने लगे। बादामी और दक्षिणी प्रदेशो पर पल्लवों का अधिकार रहा और 641 ई - 655 ई. तक चालुक्य राज्य का कोई भी एकछत्र सम्राट न हो सका।

विक्रमादित्य प्रथम (655 ई. - 681 ई.) 

655 ई. के लगभग पुलकेशिन द्वितीय के छोटे पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लवों को पराजित कर दिया और राजधानी को हथिया लिया। उसने अपने विद्रोहियों (भाइयों) का दमन कर दिया। इन समस्त कार्यों को करने में उसे अपने नाना, गंग नरेश दुर्विनीति तथा अपने छोटे भाई जयसिंह वर्मन से बहुत अधिक सहायता प्राप्त हुई।

सम्पूर्ण राज्य पर पुनः अधिकार - विक्रमादित्य प्रथम ने जयसिंह वर्मन की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे लाट का गवर्नर बना दिया। जयसिंह वर्मन ने वल्लभी के राजा शिलादित्य तृतीय को पराजित करके उस पर अधिकार कर लिया जो उसके पिता के राज्य में सम्मिलित थे। विक्रमादित्य ने श्री पृथ्वीवल्लभ, महाराजाधिराज, परमेश्वर, रणरसिक आदि उपाधियों धारण कीं।

पल्लवों से युद्ध - हमने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है कि विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लवों से बादामी को छीन लिया। इसके बाद भी चालुक्यों और पल्लवों में संघर्ष बना रहा है। विक्रमादित्य ने पल्लव-नरेश महेन्द्रवर्मन को हरा दिया। महेन्द्रवर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन प्रथम पल्लव सिहासन पर आसीन हुआ। चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने पाण्ड्य नरेश अरिकसरी पराकुशमार वर्मन के साथ मिलकर महेन्द्र वर्मन द्वितीय को पराजित किया। परन्तु एक अन्य युद्ध में जो कदाचित पेंरुवलननूर नामक स्थान पर हुआ था, पल्लव राजा ने विक्रमादित्य प्रथम को पराजित किया था।

मृत्यु - विक्रमादित्य प्रथम की मृत्यु 681 ई. में हुई।

विनयादित्य (681 ई. - 696 ई.)

विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद उसका बेटा विनयादित्य सिंहासनारूढ़ हुआ। अपने पिता के शासनकाल में ही वह अपनी वीरता का परिचय दे चुका था। एक अभिलेख में उसे पल्लवों, केरलों, कलभों, कमविलों, कमच्चोलों, हैयो, मालवों, विलो, चोलो, पाण्डयो आलुपों और गंग आदि का विजेता कहा गया है। कुछ अन्य लेखों में इस बात का भी उल्लेख है कि उसने कमेर, पारसीक और सिंहल के राजाओ से युद्ध कर लिया था। उसने 'सकलोत्तरा पथनाथ को उत्तरीभारत पर आक्रमण करके पराजित किया। कुछ विद्वानों का मत है कि यह सकलोत्तरा पथनाथ कन्नौज का राजा था, जिसका नाम यशोवर्मन था परन्तु कुछ उसे मगध का गुप्त राजा देवगुप्त द्वितीय बतलाते हैं। 696 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

नरेश कृष्ण तृतीय के अधीन सामन्त था और बीजापुर जिले में तर्दवाडि के प्रदेश पर शासन करता था। शनैः-शनै उसने अपनी शक्ति अर्जित की और 973 ई. के लगभग उसने राष्ट्रकूट राजा कर्क द्वितीय को पराजित कर अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।

गंगे और राष्ट्रकूटों से सम्मिलित युद्ध - गंग-वाग का राजा मारसिंह द्वितीय राष्ट्रकूटों का सम्बन्ध था। उसकी पुत्री का विवाह कृष्ण तृतीय के एक पुत्र के साथ हुआ था। अतएव कर्क द्वितीय के बाद उसने अपनी बहन के पुत्र इन्द्र चतुर्थ को सिंहासनरूढ़ करना चाहा परन्तु तैल के विरोध के फलस्वरूप वह असफल रहा। परिणामस्वरूप उसने अनशन करके अपने प्राण दे दिये। मारसिंह के बाद उसके एक सामन्त पांचालदेव ने तेल का विरोध किया और कृष्णानदी के दक्षिण के भाग में अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया। इसके बाद तैल द्वितीय से राष्ट्रकूटों के अन्य सामन्त शासक रणस्तम्भ को भी पराजित किया, इन सब संघर्षो से इन्द्र चतुर्थ अत्यन्त खिन्न हो गया और उसने भी अनशन द्वारा अपने प्राणो को त्याग दिया। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद तैल ने नर्मदा और तुंगभद्रा के मध्य एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की और मान्यखेट को अपनी राजधानी बनाया।

चोलों और शोलाहारों से युद्ध - सन् 980 ई. के आसपास तैल ने चोल राजा उत्तम चोल को हटाया और दक्षिणी कोकण के शोलाहार वंश राजा अवसर तृतीय को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।

लाटों और गुर्जरों पर विजय - चोलों और शोलाहारों से निपटने के बाद तैल के लाटों और गुर्जरों से लोहा लिया और उन्हे भी हराया। त्रिलोचन पाल का सूरत पटसूचित करता है कि "गोगिरात्र ने महाविष्णु की तरह अपने प्रदेश को मुक्त किया जिस पर दानरूपी शक्तिशाली शत्रुओं नेअधिकार कर लिया था।"

मालवा के परमारों से युद्ध - उदयपुर प्रशास्ति में लिखा है कि "मुञ्ज ने लाट निवासियों पर विजय प्राप्त की।' तैल द्वितीय के शासनकाल में मालवा में परमार वंश का एक अत्यन्त शक्तिशाली राजा मुञ्ज राज्य कर रहा था। तैल के बढ़ते हुए प्रभाव को वह सहन न कर सका, तैल पर उसने कई बार आक्रमण किया, तैल बड़ी वीरता से लड़ा तथा उसके बढ़ते प्रभाव को वह सहन न कर सका, अब मुञ्ज के आगे बढने की बारी थी, उसने गोदावरी नदी पार करके तैल पर आक्रमण किया, तैल बड़ी वीरता से लड़ा और इस बार उसने मुञ्ज को पराजित करके बन्दी बना लिया। कहा जाता है कि बन्दीगृह में मुञ्ज तैल की बहिन मृणालिनी की सुन्दरता पर मुग्ध होकर उससे प्रेम करने लगा। मृणालिनी ने भी उसके प्रति प्रेम प्रदर्शित किया और दोनो एक-दूसरे से घनिष्ट हो गये। इसी बीच मृणालिनी को यह मालूम हुआ कि मुञ्ज का मन्त्री अपने स्वामी को चोल के बन्दीगृह से मुक्त कराने का षड्यंत्र रच रहा है। इससे मृणालिनी अत्यन्त खिन्न हो गयी और उसने इसकी सूचना अपने भाई तैल को दे दी। तैल अत्यधिक क्रुद्ध हो गया और उसने मुञ्ज का अपमान करके उसकी हत्या कर दी।

मुञ्ज के राजकवि पद्मगुप्त ने लिखा है कि 'मालवा राजा की चरणधूलि के एक कण से प्राप्त करने के लिए गुर्जर राजा मारबाद के जंगल में अनेक प्रकार की तपस्यायें कर रहा है, "राष्ट्रकूट राजा धवल के बीजापुर उत्कीर्ण लेख में कहा गया है। 'धवल ने एक गुर्जर राजा की सेना को शरण दी, जब मुञ्जराग ने मेदापार के आधार को नष्ट किया। डॉ. अशोक कुमार मजूमदार ने लिखा है, 946 ई तक उज्जैन गुर्जरों प्रतिहारो के हाथ में था।

राज्यच्युत - हेमचन्द्र ने लिखा है कि चामुण्ड ने अपने पुत्र वल्लभ से कटक उखाड़ फेंकने के लिए कहा। इस पर अभयतिलक गानि ने लिखा है, "चामुण्डराज., किल अधिकाभात विकलीर्भूतः सन् भगिन्या वाचिनिदेव्या राज्यात् स्फेतमित्वा तत्र पुत्रों वल्लभो राज्ये प्रतिष्ठितः।

मृत्यु - 997 ई. के लगभग अत्यन्त कष्ट उठाते हुए तेल की मृत्यु हो गयी।

मूल्यांकन - तैल की गणना पश्चिमी चालुक्य शाखा के महानतम् शासकों में की जाती है। उसने केवल इस शाखा के राज्य की स्थापना ही नहीं की बल्कि अपने साम्राज्य को बहुत अधिक बढ़ाया। परमार वंश के प्रतिभाशाली शासक मुञ्ज को पराजित करके उसने अपना सिक्का सर्वत्र जमा लिया। अद्वितीय पराक्रम दिखलाते हुए उसने महाराजाधिराज परमेश्वर और चक्रवर्ती आदि उपाधियों धारण की। एक चालुक्य जनश्रुति उसे श्रीकृष्ण का अवतार बतलाती है।

सत्याश्रय (997 ई. - 1008 ई.)

997 ई. में तैल द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् सत्याश्रय सिंहासनारूढ़ हुआ। अपने पिता के शासनकाल में ही वह अपनी योग्यता का परिचय दे चुका था। सत्याश्रय भी अपने पिता की तरह एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने भी अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाकर 'आहवमल्ल' और 'अकलकचरित' आदि उपाधियों को धारण किया।

शोलाहारों से युद्ध - उत्तरी कोंकण में शोलाहार वंश का राजा अपराजित था। सत्याश्रय ने उस पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर दिया। अपराजित को उसकी अधीनता स्वीकार करने हेतु बाध्य होना पड़ा।

गुर्जरों से युद्ध - उसके शासनकाल में गुर्जर नरेश चामुण्डराज भी अपना सर उठा रहा था। सत्याश्रय ने उसे भी पराजित कर दिया।

परमारों से पराजय - मालवा के परमार चालुक्यों के अत्यन्त विरोधी थे। जब तैल द्वितीय द्वारा मुञ्ज की हत्या कर दी गयी तो मालवा का सिंहासन सिन्धुराज के हाथ में लगा। सिन्धुराज ने परमारों की पराजय का बदला लेने के लिए सत्याश्रय के राज्य पर आक्रमण किया और मुञ्ज द्वारा खोये हुए प्रदेशों को  पुनः प्राप्त कर लिया।

चोलों से युद्ध युद्ध - सत्याश्रय को चोलों से अत्यन्त भयंकर युद्ध करना पड़ा। उसके शासनकाल में चोलवंश में अत्यन्त प्रतिभाशाली शासक राजराज महान शासन कर रहा था। उसका प्रभाव वेंगी के चालुक्य पर भी था। 1006 ई. के लगभग सत्याश्रय ने वेंगी पर आक्रमण किया।

इधर राजराज ने यह सोचा कि रक्षा का सबसे अच्छा तरीका आक्रमण है। वेंगी की रक्षा के लिए उसने पश्चिमी चालुक्यों पर आक्रमण करने की सोची। इस कार्य को करने के लिए उसने अपने पुत्र राजेन्द्र को भेजा। राजेन्द्र ने बड़े साहस के साथ चालुक्य पर आक्रमण किया और उनकी राजधानी मान्यखेट को खूब लूटा। उसने भीषण नरसंहार किया. स्त्रियों बच्चों और ब्राह्मणो तक का अपमान किया. विन्डा होकर उसे अपनी सेना को वेंगी से वापस लाना पड़ा, परन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा और वह अपने राज्यों को चोलों से संयुक्त कराने के लिए निरन्तर प्रयत्न करता रहा, अन्त में उसे सफलता मिली और उसने राजराज को पराजित करके तुंगभद्रा नदी तक के प्रदेश पर पुनः अधिकार कर लिया।

विक्रमादित्य पंचम (1008 ई. - 1014 ई.)

सन् 1008 ई में सत्याश्रम की मृत्यु के पश्चात उसके छोटे भाई का पुत्र विक्रमादित्य पंचम सिहासनारूढ हुआ, उसने दक्षिण कौशल पर विजय प्राप्त की। दक्षिणी कौशल में उस समय भीमरथ महामवगुप्त द्वितीय का राज्य था। विक्रमादित्य पंचम ने उसे पराजित किया और त्रिभुवनमल्ल तथा बल्लभनरेन्द्र आदि उपाधियाँ धारण कीं। विक्रमादित्य पचम की एक बहन अक्कादेव अत्यन्त चतुर, योग्य और निर्भीक रमणी थी। उसे विक्रमादित्य पंचम ने किसुकाड का गवर्नर नियुक्त किया था।

जयसिंह द्वितीय (1015 ई. - 1043 ई.)

विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के पश्चात् लगभग 1 वर्ष तक उसी के छोटे भाई अम्मण द्वितीय ने राज्य किया, उसके बाद 1025 ई. में उसका सबसे छोटा भाई जयसिंह चालुक्य वंश के सिंहासन पर आरूढ हुआ। जयसिंह की सिहासनरूढ होते ही अनेक कठिनाइयों और युद्धों का सामना करना पड़ा।

परमारों से युद्ध - मालवा में उस समय परमार वंश के राजा भोज का राज्य था। भोज अत्यन्त दानी था, उसने चालुक्यों के राज्य पर आक्रमण करके लाट और कोंकण के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया, परन्तु यह प्रदेश अधिक समय तक भोज के पास न रह सके। सन् 1024 ई के लगभग जयसिंह द्वितीय ने पुनः इन प्रदेशों को हथिया लिया।

चोलों से युद्ध - जयसिंह के शासनकाल में चोल राज्य का शासक राजेन्द्र था, वह अत्यन्त पराक्रमी था. जयसिंह द्वितीय को उससे भी लोहा लेना पड़ा। वेगी के सिहासन पर जयसिंह द्वितीय, विक्रमादित्य सप्तम को बैठाना चाहता था परन्तु चोल शासक राजेन्द्र राजराज नामक एक अन्य राजकुमार को सिहासन देने के पक्ष में था। इसी बात के कारण जयसिंह ने तुंगभद्रा नदी पार की और चोलों से बेल्लारी तथा गंगवाड़ि के कुछ भाग छीन लिये। विक्रमादित्य सप्तम् ने भी वेंगी पर आक्रमण करके विजयवाड़ा के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। राजेन्द्र इस सबसे बहुत अधिक क्षुब्ध हुआ।

मास्को नामक स्थान पर जयसिंह और राजेन्द्र में भयंकर युद्ध हुआ जिसमे जयसिंह की पराजय हुई और राजेन्द्र का अधिकार तुंगभद्रा नदी तक के समस्त भू-भाग पर हो गया। वेगी में भी चोलों की विजय हुई और उन्होंने राजराज को वहाँ के सिहासन पर आरूढ़ किया।

विद्रोहों का दमन - जयसिंह द्वितीय को अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा था। जयसिह का सेनापति कलिदास अत्यन्त चतुर था। उसकी सहायता से जयसिंह ने विद्रोहियों को दबाने में सफलता प्राप्त की।

राजधानी परिवर्तन - कुछ विद्वानो का मत है कि जयसिंह ने अपने शासनकाल में अपनी राजधानी मान्यखेट को बदल कर कल्याणी बनायी थी, परन्तु अन्य विद्वानों का कथन है कि यह कार्य उसके पूर्व ही हो चुका था।

मृत्यु एवं उपाधियाँ - सन् 1041 ई. में जयसिंह द्वितीय की मृत्यु हो गयी। उसने मैलोक्य कल्ल विक्रमसिंह और जकदेक मल्ल की उपाधियाँ धारण की थी।

सोमेश्वर प्रथम (1041 ई. - 1063 ई.)

जयसिंह द्वितीय के पश्चात सोमेश्वर प्रथम राजा हुआ, उसका जीवन संघर्ष में ही व्यतीत हुआ।

मालवा पर आक्रमण - सोमेश्वर प्रथम ने मालवा के राजा भोज पर आक्रमण करके उसे नतमस्तक होने के लिए बाध्य कर दिया। जिस समय सोमेश्वर प्रथम ने मालवा के राजा को पराजित किया उसी के तुरन्त बाद ही मालवा में एक घटना घटी। चालुक्यों की पूर्वी शाखा के राजा भीम और कलचुरी राजा कर्ण ने सम्मिलित रूप से मालवा पर आक्रमण किया और उसे अपने अधीन कर लिया। सोमेश्वर प्रथम भी इन परिस्थितियों में चुप होकर बैठने वाला नहीं था। उसने तुरन्त अपने पिता विक्रमादित्य षष्ठ्म को कलचुरियों और चालुक्यों को मालवा से बाहर खदेड़ देने के लिए भेजा। विक्रमादित्य ने एक विशाल सेना के साथ मालवा की ओर प्रस्थान किया। फिर भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह को मालवा के सिंहासन पर आरूढ किया गया।

चोलों से युद्ध - सोमेश्वर प्रथम का अधिक समय चोलों से युद्ध करते ही व्यतीत हुआ। उसने वेगी के उत्तराधिकारी युद्ध में हस्तक्षेप किया और राजराज को सिंहासनाच्युत करके विक्रमादित्य सप्तम् को राजा बनाने का प्रयास किया। चोल नरेश राजेन्द्र राजराज की ओर था और उसने अपने पुत्र राजराज को विजयादित्य सप्तम् तथा सोमेश्वर से लोहा लेने के लिए भेजा। युद्ध में चोल राजा राजेन्द्र प्रथम की मृत्यु हो गयी और राजाधिराज सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने सोमेश्वर से युद्ध जारी रखा और धान्यकटक के प्रसिद्ध युद्ध में सोमेश्वर के पुत्र विक्रमादित्य को हरा दिया। विजयादित्य सप्तम् भी भाग खड़ा हुआ। तत्पश्चात् राजाधिराज सोमेश्वर के राज्य पर आक्रमण करने के लिए बढ़ा और उसने कौल्लिपाक्कई के दुर्ग तथा कापिल्य के राजप्रसाद को तोड़-फोड़ दिया। तत्पश्चात् वह कल्याणी की ओर बढ़ा और शीघ्र ही कल्याणी पर उसका अधिकार हो गया। चोलों की चालुक्यों के प्रति यह महत्वपूर्ण विजय थी। इसके उपलक्ष्य में राजाधिराज ने अपना वीराभिषेक करके विजयराजेन्द्र' की उपाधि से अपने को विभूषित किया।

सोमेश्वर यद्यपि पराजित हो गया परन्तु हताश नहीं हुआ। उसने चोलों पर पुनः आक्रमण किया और 1050 ई. में उन्हे राज्य से बाहर निकाल दिया। उसने बाद में वेंगी की ओर बढ़ा और वहाँ के राजा राजराज को भी नतमस्तक किया। चोलो से बदला लेने के लिए वह चोलों की राजधानी काची पर भी चढ़ाई कर बैठा परन्तु थोड़ी-बहुत लूटपाट करने के बाद वापस आ गया।

चोल नरेश राजाधिराज सोमेश्वर के क्रियाकलापों से अत्यन्त क्षुब्ध हो गया और उसने अपने पुत्र के साथ सोमेश्वर से लोहा लेने के लिए प्रस्थान किया। कोप्यक नामक स्थान पर चोलों और चालुक्यों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ, युद्ध के अन्त में राजेन्द्र द्वितीय की विजय हुई और उसने चोलों की बहुत अधिक सम्पत्ति छीन ली।

एक बार पुन पराजित होने पर भी सोमेश्वर ने अपना धैर्य नही छोड़ा और उसने पुन: वेंगी की ओर ध्यान दिया। वेंगी नरेश राजराज की मृत्यु के बाद उसने विजयादित्य सप्तम् के पुत्र शक्तिवर्मन को वेंगी के सिंहासन पर आरूढ किया और अपने सेनापति चामुण्डराज को चोलों के बढ़ते हुए वेग को रोकने के लिए वेंगी भेजा। दुर्भाग्यवश चामुण्डराज और शक्तिवर्मन दोनों ही चोलों से पराजित हुए और मौत के घाट उतार दिये गये। चालुक्यों ने गंगवडि पर अधिकार कर लिया परन्तु चोलों ने उन्हें वहाँ से भी खदेड़ दिया।

सन् 1063 ई. में चोलवंश के राजा राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु हो गयी। उसके बाद वीर राजेन्द्र सिंहासनारूढ हुआ। उसने भी सोमेश्वर से लोहा लिया और तुंगभद्रा नदी के किनारे चालुक्यों को हराया। वेंगी में भी चालुक्यो का प्रभाव नही रहा।

कोंकण पर विजय - उत्तरी कोंकण में उस समय गृहयुद्ध चल रहा था। सोमेश्वर ने उत्तरी कोंकण पर आक्रमण करके अपने एक मन्त्री को वहाँ का राजा बना दिया, परन्तु वह अधिक दिनों तक वहाँ का राजा न रह सका तथा कोंकण के राजकुमार अनन्तपाल ने उसे सिंहासनच्युत करके स्वय सिंहासन ग्रहण कर लिया।

केरल विजय - कहा जाता है कि सोमेश्वर ने केरल पर भी आक्रमण किया और वहाँ के राजा को मौत के घाट उतार दिया।

अन्य विजयें - सोमेश्वर प्रथम की कुछ विजयों को भी उल्लिखित किया गया है। उसने लाट और गुजरात पर आक्रमण करके वहाँ के राजाओं को नतमस्तक किया। विदर्भ, मध्य प्रदेश के कुछ राज्य, कौशल कलिंग पर भी अधिकार जमा लिया था। चित्रकूट का राजा धारावर्ष भी उसके द्वारा पराजित हुआ। विल्हण ने लिखा है कि उसके पुत्र ने पूर्वी भारत में गौड और कामरूप तथा दक्षिण में पाण्डय और लेका आदि पर भी आक्रमण किया। कुछ अभिलेखो से ज्ञात होता है कि उसने मगध, पौचाल, कन्नौज वर्ग, खस, कुरु आमीर और नेपाल आदि राज्यों पर भी विजय प्राप्त की, परन्तु यह अभिलेख उसकी प्रशस्तिमात्र मालूम होते हैं। इन विजयों के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

मृत्यु - सोमेश्वर के जीवन के अन्तिम दिन अच्छे नहीं बीते, वह किसी भीषण रोग से ग्रस्त हो गया था और सन् 1063 ई. में तुंगभद्रा नदी में डूबकर उसने अपने प्राण दे दिये।

मूल्यांकन - सोमेश्वर एक वीर पुरुष, दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और महान कलाप्रेमी था। उसने मान्यखेट के स्थान पर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया था. अपनी वीरता के कारण ही उसने आहममल्ल, पीरमार्तण्ड, राजनारायण, मैलक्यमल्ल आदि बहुत सी उपाधियाँ धारण की थी। उसकी गणना चालुक्य वंश के सबसे प्रतिभाशाली शासको में की जाती है। वह जीवनपर्यन्त चोलो से युद्ध करता रहा। यद्यपि उसे कुछ पराजयों का भी मुँह देखना पड़ा, परन्तु वह कभी भी हताश न हुआ। उसके विषय में के. मन शास्त्री ने लिखा है कि "अनेक पराजयों के बावजूद अपने जीवन के अन्तिम समय तक उसने बिना किसी कम उत्साह के चोलों से भयानक संघर्ष जारी रखा, वह एक योद्धा के बजाय अधिक राजनीतिज्ञ था अन्यथा वह इतने अधिक राज्यों में और इतने समय तक अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल नही होता।' उसके शासनकाल में कल्याणी दक्षिण भारत की सुन्दरतम नगरी थी।

सोमेश्वर द्वितीय (1063 ई. से 1076 ई.)

सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के पश्चात् सोमेश्वर द्वितीय चालुक्य वंश के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। वह सोमेश्वर प्रथम का सबसे बड़ा पुत्र था।

चालुक्य राज्य का विभाजन- सोमेश्वर द्वितीय के शासनकाल में कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्यों के राज्य का थोड़े समय के लिए विभाजन हो गया। इस विभाजन का कारण भाइयों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता थी। सोमेश्वर द्वितीय के छोटे भाई विक्रमादित्य अपने बड़े भाई से रुष्ट था। चोल राजा ने वीर राजेन्द्र की पुत्री से अपना विवाह कर लिया। वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर द्वितीय पर आक्रमण करके उसे पराजित कर दिया और चालुक्यों के राज्य का दो भागों में विभाजन हो गया। उत्तरी भाग में सोमेश्वर द्वितीय राज्य करता रहा और दक्षिणी भाग में विक्रमादित्य षष्ठ।

मालव नरेश पर आक्रमण - कहा जाता है कि सोमेश्वर द्वितीय ने मालव नरेश जयसिंह पर आक्रमण करके उसके राज्य पर अधिकार कर लिया परन्तु उसका यह अधिकार अस्थायी रहा। थोड़े समय बाद मालवा ने पुनः स्वतन्त्रता प्राप्त की।

चालुक्य-चोल सम्बन्ध - सोमेश्वर द्वितीय के शासनकाल में चालुक्यों और चोलों के सम्बन्ध कभी अच्छे रहे और कभी खराब, सन् 1070 ई में चोल राजा वीरराजेन्द्र की मृत्यु के बाद अधिराजेन्द्र और राजेन्द्र द्वितीय में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ। सोमेश्वर का भाई विक्रमादित्य षष्ठ ने अपने साले अधिराजेन्द्र का साथ दिया और उसे चोल सिहासन पर बैठा दिया। दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद जनता ने विद्रोह किया और राजेन्द्र को मौत के घाट उतार दिया।

सन् 1070 ई. में राजेन्द्र द्वितीय कुलोतुंग के नाम से चोल राजा बना। सोमेश्वर द्वितीय ने अपने भाई के प्रभाव को कम करने के लिए उससे मित्रता कर ली और सोमेश्वर तथा कुलोतुंग की सम्मिलित सेना ने विक्रमादित्य के राज्य पर आक्रमण किया और उससे गगवाडि छीन लिया, परन्तु दुर्भाग्यवश सोमेश्वर द्वितीय बन्दी बना लिया गया और कदाचित उसकी हत्या कर दी गयी। सोमेश्वर द्वितीय की हत्या करके ही विक्रमादित्य षष्ठ चालुक्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

विक्रमादित्य षष्ठ (1076 ई. - 1126 ई.)

सिंहासन पर बैठते ही विक्रमादित्य षष्ठ ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में चालुक्य विक्रम सम्वत् चलाया तथा 'त्रिभुवन मल्ल' की उपाधि धारण की।

भाई के विद्रोह का दमन - विक्रमादित्य षष्ठ के भाई जयसिंह ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया और एक युद्ध में उसे हरा दिया। परन्तु थोड़े ही दिनों के पश्चात् विक्रमादित्य षष्ठम् ने उस पर आक्रमण करके उसे कैद कर लिया और बाद में उसे क्षमा भी कर दिया।

होयसलों, कदम्बों और पाण्डयों का दमन - गंगवाडि में होयसल चालुक्यों के अधीन राज्य कर रहे थे। विक्रमादित्य षष्ठ के शासनकाल में होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन था, उसको अपनी शक्ति पर बड़ा गर्व था। इसलिए उसने पाण्डयों और कदम्बो के साथ मिलकर अपने स्वामी विक्रमादित्य के राज्य पर आक्रमण किया और उसके कुछ भाग पर अधिकार कर लिया. परन्तु थोडे ही समय के बाद विक्रमादित्य ने उसे हरा कर अपना क्षेत्र छोड़ने के लिए विवश कर दिया, तत्पश्चात् विक्रमादित्य होयसलों की ओर बढ़ा और विष्णुवर्द्धन को नतमस्तक किया। विष्णुवर्द्धन के सहायक पाण्ड्य और कदम्ब भी पराजित हुए।

चोलों से युद्ध - सन् 1118 ई. के लगभग विक्रमादित्य षष्टम ने चोलों के राजा कुलोतुंग से भी युद्ध किया और वेगी पर अधिकार करके अपने सेनापति अनन्तपाल को वहाँ का राजा बना दिया।

कोकण विजय - विक्रमादित्य ने कोकण पर आक्रमण करके उस पर भी विजय प्राप्त कर ली और वहाँ कामदेव पाण्डय को अपना सामन्त शासक बना दिया।

यादवों का दमन - यादव चालुक्यों के अधीन थे। 1100 ई. के लगभग यादवों ने विद्रोह किया, परन्तु विक्रमादित्य ने उनके विद्रोहों का दमन सफलतापूर्वक कर दिया।

अन्य विजयें - कुछ अभिलेखों से पता चलता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने विदर्भ, सिन्धु गुर्जर. कश्मीर, तुरुक, आमीर, वग आदि प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की, परन्तु इन विजयों के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।

मृत्यु - सन् 1126 ई. में विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु हो गयी।

मूल्यांकन - विक्रमादित्य षष्ठ हमारे सम्मुख एक महान विजेता, चतुर राजनीतिज्ञ, उत्कंठ विद्वान तथा महान राष्ट्र निर्माता के रूप में आता है। उसने जीवन पर्यन्त युद्ध किया और चोलों, होयसलों, पाण्डयों और कदम्बो को दबा कर रखा, लंका के राजा से उसने कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये और 1083 में वहाँ अपना एक दूत मण्डल भेजा।

विक्रमादित्य षष्ठ स्वयं तो विद्वान था ही इसके साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसकी सभा मे विल्हण नामक प्रसिद्ध कवि था जिसने विक्रमांक देव चरित्र नामक महाकाव्य का सृजन किया। विज्ञानेश्वर नामक उसके एक अन्य दरबारी ने 'मिताश्ररा' लिखा। वह महान राष्ट्र निर्माता भी था। उसने विक्रमपुर नामक नगरी की स्थापना के साथ-साथ एक विशाल मन्दिर की स्थापना भी की थी।

सोमेश्वर तृतीय ( 1126 ई. से 1138 ई.)

विक्रमादित्य षष्ठ के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर तृतीय सिंहासनारूढ़ हुआ। सोमेश्वर तृतीय की अभिरुचि विद्या में अधिक थी। परन्तु युद्ध में अधिक रुचि नहीं थी। फलस्वरूप उसके शासनकाल में होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन चालुक्य की आधीनता से मुक्त हो गया और उसने स्वतन्त्र रूप से शासन करना प्रारम्भ किया। उधर चालुक्य से आन्ध्र प्रदेश छीन लिया। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि थोड़े समय बाद चालुक्यों ने फिर आन्ध्र प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। सोमेश्वर तृतीय की मगध और नेपाल की विजय का उल्लेख कुछ अभिलेखों में है, परन्तु यह कहना कि सोमेश्वर तृतीय मगध और नेपाल का विजेता था उचित नहीं प्रतीत होता है।

सोमेश्वर की रुचि युद्ध के बजाय अध्ययन में अधिक थी, उसने मानसोल्लास नामक ग्रन्थ की रचना की थी। भूलोकमल्ल तथा त्रिभुवनमल्ल आदि उपाधियों को धारण किया। 1138 ई. के लगभग सोमेश्वर तृतीय की मृत्यु हो गयी थी।

जगदेकमल्ल द्वितीय (1138 ई. से 1151 ई.)

सोमेश्वर तृतीय के बाद उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। जगदेक ने होयसलों और कदम्बों को दबाया, मालवा के राजा जयवर्मन परमार को सिहासन से हटाकर वहा अपने एक मित्र बल्लाल को शासक नियुक्त किया। गुर्जर नरेश कुमारपाल और चोल नरेश कुलोतुंग द्वितीय को पराजित करने का श्रेय उसे प्राप्त है।

तैल तृतीय (1151 ई. से 1156 ई.)

यह जगदेकमल्ल द्वितीय का भाई था उसके बाद सिहासन पर बैठा। तैल तृतीय अत्यन्त दुर्बल शासक था। उसके शासनकाल में होयसलो, काकतियों यादवो ने विद्रोह किया था, होयसल राजा विष्णुवर्द्धन ने चालुक्यों के कई प्रदेशों को छीन लिया। तर्डवाडि के  कल्चुरी भी अत्यन्त शक्तिशाली हो गये, उनका राजा विज्जल था। काकतीय सामन्त प्रोल द्वितीय का दमन करने के लिए जब तैल ने उस पर आक्रमण किया तो प्रोल ने तैल को बन्दी बना लिया, दयावश उसने उसे बाद में बन्दीगृह से मुक्त करवा दिया था। प्रोल की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रुद्र ने भी तैल को नतमस्तक किया और चालुक्य होयसलों से दब गये।

चालुक्यों की शक्ति क्षीण होते देख कलचुरि राजा विझल ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण करके 1157 ई. में उसके बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। विज्जल ने होयसलों, गंगों, चोलों, चेरी, चेदियों और गुर्जरों को भी पराजित किया और जीवन-पर्यन्त तैल तृतीय कलचुरियों की अधीनता में रहा।

कलचुरी वंश का शासन (1157 ई. से 1181 ई.)

कलचुरी नरेश विञ्जल ने तैल तृतीय को पराजित करके उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। उसने वसव नामक एक व्यक्ति को अपना मन्त्री बनाया था। कुछ विद्वानों का मत है कि 1168 ई. के लगभग विज्जल रुष्ट होकर वसव ने उसकी हत्या कर दी. परन्तु यह मत अधिक समीचीन नहीं प्रतीत होता है क्योंकि विभिन्न लेखों से यह ज्ञात होता है कि विजल ने स्वयं सिंहासन त्याग दिया था और उसने अपने पुत्र को राजा बना दिया था। विज्जल के बाद उसके दोनों पुत्रों ने 1181 ई. तक चोल राज्य पर शासन किया।

सोमेश्वर चतुर्थ (1181 ई. से 1186 ई.)

सन् 1181 ई में चोल पुनः स्वतन्त्र हो गये। तैल तृतीय ने पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ विज्जल के दूसरे पुत्र आह्नमल्ल से कल्याणी छीनने में समर्थ हुआ और उसने चोल शासन का पुनरारम्भ किया। 1183 ई में जब आह्वमल्ल के छोटे भाई सिंहल कलचारि राज्य का राजा हुआ तो उसने भी सोमेश्वर चतुर्थ की अधीनता में रहना स्वीकार कर लिया।

सोमेश्वर तृतीय ने त्रिभुवनमल्ल की उपाधि धारण की। उसके राज्य का विस्तार गोदावरी नदी तक हो गया था। सन् 1189 ई. के लगभग विल्लन नामक एक यादव वंशी सामन्त ने सोमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करके उसके राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। सन् 1190 ई. में होयसल राजा बल्लाल द्वितीय ने सोमेश्वर पर आक्रमण कर दिया। दोनों के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें होयसल नरेश की विजय हुई और चालुक्यों के राज्य के कुछ अन्य भाग होयसल के अधीन हो गये। चालुक्यों की गिरती हुई दशा में काकतीय नरेश रुद्र ने भी लाभ उठाया और उसने भी कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार कल्याणी के चालुक्यों का समस्त राज्य यादवों. होयसलों और काकतीयों में बट गया।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- ऐतिहासिक युग के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता का परिचय दीजिए व भारत में उसके बाद विकसित होने वाली सभ्यता व संस्कृति को चित्रित कीजिए।
  3. प्रश्न- भारत के प्रख्यात इतिहाकार कल्हण व आर. सी. मजूमदार का परिचय दीजिए।
  4. प्रश्न- भारतीय ज्ञान प्रणाली के स्रोत पर प्रकाश डालिए।
  5. प्रश्न- जदुनाथ सरकार, वी. डी. सावरकर, के. पी. जायसवाल का परिचय दीजिए।
  6. प्रश्न- भारत के प्रख्यात इतिहासकार मृदुला मुखर्जी के बारे में बताइए।
  7. प्रश्न- भारत संस्कृति (भाषाओं) के ज्ञान से अवगत कराइये।
  8. प्रश्न- नृत्य व रंगमंच की भारतीय संस्कृति से अवगत कराइये।
  9. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता से मगध राज्य तक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  10. प्रश्न- भारत के प्रख्यात इतिहासकार विपिनचन्द्र पर टिप्पणी लिखिए।
  11. प्रश्न- मध्य पाषाण समाज और शिकारी संग्रहकर्ता पर टिप्पणी कीजिए।
  12. प्रश्न- ऊपरी पुरापाषाण क्रांति क्या थी?
  13. प्रश्न- प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
  14. प्रश्न- पाषाण युग की जीवनशैली किस प्रकार की थी?
  15. प्रश्न- के. पी. जायसवाल के विशिष्ट कार्यों से अवगत कराइये।
  16. प्रश्न- वी. डी. सावरकर के धार्मिक और राजनीतिक विचार से अवगत कराइये।
  17. प्रश्न- लोअर पैलियोलिथिक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  18. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता के विषय में आप क्या समझते हैं? 'हड़प्पा संस्कृति' के निर्माता कौन थे? बाह्य देशों के साथ उनके सम्बन्धों के विषय में आप क्या समझते हैं?
  19. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता के सामाजिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
  20. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों के आर्थिक जीवन के विषय में विस्तारपूर्वक बताइये।
  21. प्रश्न- सिन्धु नदी घाटी के समाज के धार्मिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  22. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की राजनीतिक व्यवस्था एवं कला का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।
  23. प्रश्न- सिन्धु सभ्यता के नामकरण और उसके भौगोलिक विस्तार की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- सिन्धु सभ्यता की नगर योजना का विस्तृत वर्णन कीजिए।
  25. प्रश्न- हड़प्पा सभ्यता के नगरों के नगर-विन्यास पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
  26. प्रश्न- हड़प्पा संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  27. प्रश्न- सिन्धु घाटी के लोगों की शारीरिक विशेषताओं का संक्षिप्त मूल्यांकन कीजिए।
  28. प्रश्न- पाषाण प्रौद्योगिकी पर टिप्पणी लिखिए।
  29. प्रश्न- सिन्धु सभ्यता के सामाजिक संगठन पर टिप्पणी कीजिए।
  30. प्रश्न- सिंधु सभ्यता के कला और धर्म पर टिप्पणी कीजिए।
  31. प्रश्न- सिंधु सभ्यता के व्यापार का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
  32. प्रश्न- सिंधु सभ्यता की लिपि पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  33. प्रश्न- सिन्धु सभ्यता में शिवोपासना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  34. प्रश्न- सैन्धव धर्म में स्वस्तिक पूजा के विषय में बताइये।
  35. प्रश्न- सिन्धु सभ्यता के विनाश के क्या कारण थे?
  36. प्रश्न- लोथल के 'गोदी स्थल' पर लेख लिखो।
  37. प्रश्न- मातृ देवी की उपासना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  38. प्रश्न- 'गेरुए रंग के मृदभाण्डों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- 'मोहन जोदडो' का महान स्नानागार' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  40. प्रश्न- ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक काल की सभ्यता और संस्कृति के बारे में आप क्या जानते हैं?
  41. प्रश्न- विवाह संस्कार से सम्पादित कृतियों का वर्णन कीजिए तथा महत्व की व्याख्या कीजिए।
  42. प्रश्न- वैदिक कालीन समाज पर प्रकाश डालिए।
  43. प्रश्न- उत्तर वैदिककालीन समाज में हुए परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- वैदिक कालीन समाज की प्रमुख विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
  45. प्रश्न- वैदिक साहित्य के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  46. प्रश्न- ब्रह्मचर्य आश्रम के कार्य व महत्व को समझाइये।
  47. प्रश्न- वानप्रस्थ आश्रम के महत्व को समझाइये।
  48. प्रश्न- सन्यास आश्रम का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  49. प्रश्न- मनुस्मृति में लिखित विवाह के प्रकार लिखिए।
  50. प्रश्न- वैदिक काल में दास प्रथा का वर्णन कीजिए।
  51. प्रश्न- पुरुषार्थ पर लघु लेख लिखिए।
  52. प्रश्न- 'संस्कार' पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- गृहस्थ आश्रम के महत्व को समझाइये।
  54. प्रश्न- महाकाव्यकालीन स्त्रियों की दशा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  55. प्रश्न- उत्तर वैदिककालीन स्त्रियों की दशा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  56. प्रश्न- वैदिककाल में विवाह तथा सम्पत्ति अधिकारों की क्या स्थिति थी?
  57. प्रश्न- उत्तर वैदिककाल की राजनीतिक दशा का उल्लेख कीजिए।
  58. प्रश्न- विदथ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  59. प्रश्न- ऋग्वेद पर टिप्पणी कीजिए।
  60. प्रश्न- आर्यों के मूल स्थान पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- 'सभा' के विषय में आप क्या जानते हैं?
  62. प्रश्न- वैदिक यज्ञों के सम्पादन में अग्नि के महत्त्व को व्याख्यायित कीजिए।
  63. प्रश्न- उत्तरवैदिक कालीन धार्मिक विश्वासों एवं कृत्यों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  64. प्रश्न- बिम्बिसार के समय से नन्द वंश के काल तक मगध की शक्ति के विकास का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  65. प्रश्न- नन्द कौन थे? महापद्मनन्द के जीवन तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  66. प्रश्न. बिम्बिसार की राज्यनीति का वर्णन कीजिए तथा परिचय दीजिए।
  67. प्रश्न- उदयिन के जीवन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- नन्द साम्राज्य की विशालता का वर्णन कीजिए।
  69. प्रश्न- धननंद और कौटिल्य के सम्बन्ध का उल्लेख कीजिए।
  70. प्रश्न- धननंद के विषय में आप क्या जानते हैं?
  71. प्रश्न- मगध की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  72. प्रश्न- मौर्य कौन थे? इस वंश के इतिहास जानने के स्रोतों का उल्लेख कीजिए तथा महत्व पर प्रकाश डालिए।
  73. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में आप क्या जानते हैं? उसकी उपलब्धियों और शासन व्यवस्था पर निबन्ध लिखिए।
  74. प्रश्न- सम्राट बिन्दुसार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- मौर्यकाल में सम्राटों के साम्राज्य विस्तार की सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  76. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के बचपन का वर्णन कीजिए।
  77. प्रश्न- सुदर्शन झील पर टिप्पणी लिखिए।
  78. प्रश्न- अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए बताइये कि वह किस प्रकार सिंहासन पर बैठा था?
  79. प्रश्न- सम्राट अशोक के साम्राज्य विस्तार पर प्रकाश डालिए।
  80. प्रश्न- सम्राट के धम्म के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए।
  81. प्रश्न- अशोक के शासन व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
  82. प्रश्न- 'भारतीय इतिहास में अशोक एक महान सम्राट कहलाता है। यह कथन कहाँ तक सत्य है? प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- मौर्य वंश के पतन के लिए अशोक कहाँ तक उत्तरदायी था?
  84. प्रश्न- अशोक ने धर्म प्रचार के क्या उपाय किये थे? स्पष्ट कीजिए।
  85. प्रश्न- सारनाथ स्तम्भ लेख पर टिप्पणी कीजिए।
  86. प्रश्न- बृहद्रथ किस राजवंश का शासक था और इसके विषय में आप क्या जानते हैं?
  87. प्रश्न- कौटिल्य और मेगस्थनीज के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- कौटिल्य की पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में उल्लेखित विषयों की व्याख्या कीजिए।
  89. प्रश्न- कौटिल्य रचित 'अर्थशास्त्र' में 'कल्याणकारी राज्य' की परिकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
  90. प्रश्न- गुप्तों की उत्पत्ति के विषय में आप क्या जानते हैं? विस्तृत विवेचन कीजिए।
  91. प्रश्न- काचगुप्त कौन थे? स्पष्ट कीजिए।
  92. प्रश्न- प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख कीजिए।
  93. प्रश्न- चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की उपलब्धियों के बारे में विस्तार से लिखिए।
  94. प्रश्न- कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य को समझाइए।
  95. प्रश्न- गुप्त शासन प्रणाली पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
  96. प्रश्न- गुप्तकाल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  97. प्रश्न- गुप्तों के पतन का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  98. प्रश्न- गुप्तों के काल को प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' क्यों कहते हैं? विवेचना कीजिए।
  99. प्रश्न- रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर विचार व्यक्त कीजिए।
  100. प्रश्न- गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के विषय में बताइए।
  101. प्रश्न- आर्यभट्ट कौन था? वर्णन कीजिए।
  102. प्रश्न- राजा के रूप में स्कन्दगुप्त के महत्व की विवेचना कीजिए।
  103. प्रश्न- कुमारगुप्त पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
  104. प्रश्न- कुमारगुप्त प्रथम की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  105. प्रश्न- गुप्तकालीन भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर प्रकाश डालिए।
  106. प्रश्न- कालिदास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  107. प्रश्न- विशाखदत्त कौन था? वर्णन कीजिए।
  108. प्रश्न- स्कन्दगुप्त कौन था?
  109. प्रश्न- जूनागढ़ अभिलेख से किस राजा के विषय में जानकारी मिलती है उसके विषय में आपसूक्ष्म में बताइए।
  110. प्रश्न- गुर्जर प्रतिहारों की उत्पत्ति का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  111. प्रश्न- मिहिरभोज की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
  112. प्रश्न- गुर्जर-प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय के शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
  113. प्रश्न-
  114. प्रश्न- गुर्जर-प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम के शासन-काल का विवरण दीजिए।
  115. प्रश्न- वत्सराज की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  116. प्रश्न- गुर्जर-प्रतिहार वंश के इतिहास में नागभट्ट द्वितीय के स्थान का मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- मिहिरभोज की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  118. प्रश्न- गुर्जर-प्रतिहार सत्ता का मूल्यांकन कीजिए।
  119. प्रश्न- गुर्जर प्रतिहारों का विघटन पर प्रकाश डालिये।
  120. प्रश्न- गुर्जर-प्रतिहार वंश के इतिहास जानने के साधनों का उल्लेख कीजिए।
  121. प्रश्न- महेन्द्रपाल प्रथम कौन था? उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए। उत्तर -
  122. प्रश्न- राजशेखर और उसकी कृतियों पर एक टिप्पणी लिखिए।
  123. प्रश्न- राज्यपाल तथा त्रिलोचनपाल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  124. प्रश्न- त्रिकोणात्मक संघर्ष में प्रतिहारों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
  125. प्रश्न- कन्नौज के प्रतिहारों पर एक निबन्ध लिखिए।
  126. प्रश्न- प्रतिहार वंश का महानतम शासक कौन था?
  127. प्रश्न- गुर्जर एवं पतन का विश्लेषण कीजिये।
  128. प्रश्न- कीर्तिवर्मा द्वितीय एवं बादामी के चालुक्यों के अन्त पर प्रकाश डालिए।
  129. प्रश्न- चालुक्य राज्य के अंधकार काल पर प्रकाश डालिए।
  130. प्रश्न- पूर्वी चालुक्य शासकों ने कला और संस्कृति में क्या योगदान दिया है?
  131. प्रश्न- चालुक्य कौन थे? इनकी उत्पत्ति के बारे में बताइए।
  132. प्रश्न- वेंगी के पूर्व चालुक्यों पर टिप्पणी लिखिए।
  133. प्रश्न- चालुक्यकालीन धर्म एवं कला का वर्णन कीजिए।
  134. प्रश्न- चालुक्यों की विभिन्न शाखाओं का वर्णन कीजिए।
  135. प्रश्न- चालुक्य संघर्ष के विषय में आप क्या जानते हैं?
  136. प्रश्न- कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों की शक्ति के प्रसार का विवरण दीजिए।
  137. प्रश्न- चालुक्यों की उपलब्धियों के महत्व का वर्णन कीजिए।
  138. प्रश्न- चालुक्यों की शासन व्यवस्था का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  139. प्रश्न- चालुक्य- पल्लव संघर्ष का विवरण दीजिए।
  140. प्रश्न- परमारों की उत्पत्ति की विवेचना कीजिए।
  141. प्रश्न- राजा भोज के शासन काल में चतुर्दिक उन्नति हुई।
  142. प्रश्न- परमार नरेश वाक्पति II मुंज के शासन काल की घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
  143. प्रश्न- राजा भोज के शासन प्रबंध के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइए।
  144. प्रश्न- परमार वंश के पतन पर प्रकाश डालिए तथा इस वंश का पतन क्यों हुआ?
  145. प्रश्न- परमार साहित्य और कला की विवेचना कीजिए।
  146. प्रश्न- परमार वंश का संस्थापक कौन था?
  147. प्रश्न- मुंज परमार की उपलब्धियों का आंकलन कीजिए।
  148. प्रश्न- 'धारा' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  149. प्रश्न- सीयक द्वितीय 'हर्ष' के शासन काल की घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
  150. प्रश्न- सिन्धुराज पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  151. प्रश्न- परमारों के पतन के कारण बताइए।
  152. प्रश्न- राजा भोज एवं चालुक्य संघर्ष का वर्णन कीजिये।
  153. प्रश्न- राजा भोज की सांस्कृतिक उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
  154. प्रश्न- परमार इतिहास जानने के साधनों का वर्णन कीजिए।
  155. प्रश्न- भोज परमार की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  156. प्रश्न- परमारों की प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश डालिये।
  157. प्रश्न- विग्रहराज चतुर्थ के शासन काल की घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
  158. प्रश्न- अर्णोराज चाहमान के जीवन एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  159. प्रश्न- पृथ्वीराज चौहान की उपलब्धियों की समीक्षा कीजिए। मोहम्मद गोरी के हाथों उसकी पराजय के क्या कारण थे? उल्लेख कीजिए।
  160. प्रश्न- चाहमान कौन थे? विग्रहराज चतुर्थ के विजयों का वर्णन कीजिए।
  161. प्रश्न- चाहमान कौन थे?
  162. प्रश्न- विग्रहराज द्वितीय के शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
  163. प्रश्न- अजयराज चाहमान की उपलब्धियों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  164. प्रश्न- पृथ्वीराज चौहान की सैनिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  165. प्रश्न- विग्रहराज चतुर्थ की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
  166. प्रश्न- पृथ्वीराज और जयचन्द्र की शत्रुता पर प्रकाश डालिये।
  167. प्रश्न- ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में पृथ्वीराज रासो के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  168. प्रश्न- चाहमान वंश का प्रसिद्ध शासक आप किसे मानते हैं?
  169. प्रश्न- चाहमानों के विदेशी मूल का सिद्धान्त पर प्रकाश डालिये।
  170. प्रश्न- पृथ्वीराज तृतीय के चन्देलों के साथ सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
  171. प्रश्न- गोविन्द चन्द्र गहड़वाल की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
  172. प्रश्न- गहड़वालों की उत्पत्ति की विवेचना कीजिए।
  173. प्रश्न- जयचन्द्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  174. प्रश्न- अर्णोराज के राज्यकाल की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
  175. प्रश्न- चाहमानों (चौहानों) के राजनीतिक इतिहास का वर्णन कीजिए।
  176. प्रश्न- ललित विग्रहराज नाटक पर नोट लिखिए।
  177. प्रश्न- चाहमान नरेश पृथ्वीराज तृतीय के तराइन युद्धों का वर्णन कीजिए।
  178. प्रश्न- चौहान वंश के इतिहास जानने के स्रोतों का वर्णन कीजिए।
  179. प्रश्न- सामंतवाद पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
  180. प्रश्न- सामंतवाद के पतन के कारण बताइए।
  181. प्रश्न- प्राचीन भारत में सामंतवाद की क्या स्थिति थी?
  182. प्रश्न- मौर्य प्रशासन और सामंतवाद पर टिप्पणी लिखिए।
  183. प्रश्न-
  184. प्रश्न- वेदों की उत्पत्ति के विषय में बताइए। वेदों ने हमारे जीवन को किस प्रकार के ज्ञान दिये?
  185. प्रश्न- हिन्दू धर्म और संस्कृति पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए
  186. प्रश्न- हिन्दू वर्ग की जाति-व्यवस्था व त्योहारों के विषय में बताइए।
  187. प्रश्न- 'लिंगायत'' के बारे में बताइए।
  188. प्रश्न- हिन्दू धर्म के सुधारकों के विषय में बताइए।
  189. प्रश्न- हिन्दू धर्म में आत्मा से सम्बन्धित विचारों से अवगत कराइये।
  190. प्रश्न- हिन्दुओं के मूल विश्वासों से अवगत कराइए।
  191. प्रश्न- उपवास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  192. प्रश्न- हिन्दू धर्म में लोगों के गाय के प्रति कर्तव्य से अवगत कराइये।
  193. प्रश्न- हिन्दू धर्म में
  194. प्रश्न- मुहम्मद गोरी के भारत आक्रमण का वर्णन कीजिए।
  195. प्रश्न- मुहम्मद गोरी की भारत विजय के कारणों की सुस्पष्ट व्याख्या कीजिए।
  196. प्रश्न- राजपूतों के पतन के कारणों की विवेचना कीजिए।
  197. प्रश्न- मुस्लिम आक्रमण के समय उत्तर की राजनीतिक स्थिति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  198. प्रश्न- महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों का वर्णन कीजिए।
  199. प्रश्न- भारत पर मुहम्मद गोरी के आक्रमण के क्या कारण थे?
  200. प्रश्नृ- गोरी के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा कैसी थी?
  201. प्रश्न- गोरी के आक्रमण के समय भारत की सामाजिक स्थिति का संक्षिप्त वर्णन करें।
  202. प्रश्न- 11-12वीं सदी में भारत की आर्थिक स्थिति पर टिप्पणी लिखें।
  203. प्रश्न- 11-12वीं सदी में भारतीय शासकों के तुर्कों से पराजय के क्या कारण थे?
  204. प्रश्न- भारत में तुर्की राज्य स्थापना के क्या परिणाम हुए?
  205. प्रश्न- मुहम्मद गोरी का चरित्र-मूल्यांकन कीजिए।
  206. प्रश्न- अरबों की असफलता के क्या कारण थे?
  207. प्रश्न- अरब आक्रमण का प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
  208. प्रश्न- तराइन के प्रथम युद्ध पर प्रकाश डालिए।
  209. प्रश्न- भारत पर तुर्कों के आक्रमण के क्या कारण थे?
  210. प्रश्न- महमूद गजनवी का आनन्दपाल पर आक्रमण का वर्णन कीजिये।
  211. प्रश्न- महमूद गजनवी का कन्नौज पर आक्रमण पर प्रकाश डालिये।
  212. प्रश्न- महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ का विध्वंस पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये। [
  213. प्रश्न- महमूद गजनवी के आक्रमण के कारणों का उल्लेख कीजिए।
  214. प्रश्न- भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण के परिणामों पर टिप्पणी कीजिए।
  215. प्रश्न- मोहम्मद गोरी की विजयों के बारे में लिखिए।
  216. प्रश्न- भारत पर तुर्की आक्रमण के प्रभावों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।

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